हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शाम में पंडित उल्हास कशालकर की सुरमयी प्रस्तुति ने मोहा मन
देहरादून, विरासत साधना के अंतर्गत आज का दिन नृत्य, संगीत और संस्कृति के रंगों से सराबोर रहा। विभिन्न शिक्षण संस्थानों के बच्चों ने नृत्य राग प्रतियोगिता में भाग लेकर दर्शकों को अपनी बेहतरीन प्रस्तुतियों से चकित कर दिया। खास बात यह रही कि अधिकतर प्रस्तुतियां बालिकाओं की थीं, जिन्होंने नृत्य के माध्यम से अपनी कला का अद्भुत प्रदर्शन किया।
कार्यक्रम की शुरुआत हुई सानिका बर्थवाल की प्रस्तुति से, जिन्होंने “बरसन लागी बदरिया रूम झूम के…” पर नृत्य कर सभी का मन मोह लिया। इसके बाद सेंट जोज़ेफ एकेडमी की प्रणिका झिल्डियाल, हैरिटेज स्कूल की समीक्षा नेगी, डुमरी एडुविला इंस्टीट्यूट की प्रकिता जखमोला, वेनहेल स्कूल की एशवेन नेगी व गौरी चमनवाल, सोशल बलूनी पब्लिक स्कूल की आकृति मैठाणी, सेंट कबीर स्कूल की साहनवी बिजल्वाण व देवयाना कोठियाल, जीआईसी नथुवावाला के ध्रुव वर्मा, और न्यू ब्लूसूम स्कूल की तेजल त्यागी ने अपने-अपने अद्वितीय अंदाज़ में प्रस्तुति दी, जिन्हें देखकर दर्शक दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो गए।
सेंट पेट्रिक स्कूल की एरिका रोज पिंटू की प्रस्तुति “सब सरकार तुम्हई से है…” ने माहौल को भावविभोर कर दिया। वहीं अस्मिता खेत्रपाल, शेम्या अग्रवाल, आराध्या बहुगुणा, स्वर्ण शिखा खंडूड़ी, अक्षिता राव, और ओजस्वी कुनवाल की प्रस्तुतियां भी बेहद सराही गईं। सभी प्रतिभागियों को प्रतियोगिता के उपरांत प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया गया।
उज़्बेक लोकसंगीत की गूंज से गूंजा विरासत का मंच
आज की सांस्कृतिक संध्या की शुरुआत हुई उज़्बेकिस्तान के मशहूर म्यूज़िकल ग्रुप की प्रस्तुति से, जिसने अपने पारंपरिक गीत-संगीत से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। ग्रुप की अगुवाई कर रहीं थीं मुख्य कोरियोग्राफर फोतिमाबोनू उमरोवा, उनके साथ रहीं नर्तकियां लोला चोलिबोयेवा और रुशाना ओक्टामोवा, और गायन में शामिल हुए फ़ैक्सरिद्दीन ज़ोलनाज़रोव, इब्रोहिम उर्चिनोव और शाक्सज़ोद योल्दाशेव।
इन कलाकारों ने अपने गीतों के माध्यम से न केवल उज़्बेक संस्कृति की झलक पेश की, बल्कि भारत और उज़्बेकिस्तान के बीच सांस्कृतिक सौहार्द का सुंदर संदेश भी दिया। उनके प्रस्तुत गीत “कट्टा अशुला” ने दर्शकों को झूमने पर मजबूर कर दिया। यह पारंपरिक उज़्बेक शैली बिना वाद्य यंत्रों के प्रस्तुत की जाती है, जिसमें केवल स्वर और लय का उपयोग होता है।
तोकशिरबेक ख़ाविदोव, फ़ख़रिद्दीन नज़रोव और शहज़ाद युलदाशोव ने अपने एकल गायन से दर्शकों के दिल जीत लिए। “लड़की हसीन हो, लड़का जवान हो…” जैसे गीतों पर श्रोता भी सुरों के संग बह चले।
सरोद की सुरों से बंधी विरासत की शाम – प्रतीक श्रीवास्तव की प्रस्तुति ने लूटी वाहवाही
प्रसिद्ध सरोद वादक प्रतीक श्रीवास्तव ने जैसे ही अपने वाद्य की झंकार छेड़ी, सांस्कृतिक संध्या का वातावरण एकदम सुरमयी हो गया। उनके साथ तबला वादक शुभ महाराज की जुगलबंदी ने प्रस्तुति को और भी उत्कृष्ट बना दिया। उन्होंने राग श्याम कल्याण से आरंभ कर राग मेघ के साथ समापन किया, जो एक सशक्त संगीतमय यात्रा की तरह रहा।
प्रतीक का संगीत सफर मात्र 6 वर्ष की उम्र में आरंभ हुआ था, जब उनके दादा पंडित रवि चक्रवर्ती, मैहर घराने के प्रख्यात सरोद वादक, ने उन्हें सरोद की दीक्षा दी। इसके बाद उनके चाचा डॉ. राजीब चक्रवर्ती ने उन्हें प्रशिक्षण दिया। वर्तमान में वह पंडित अजय चक्रवर्ती और पंडित तेजेंद्र नारायण मजूमदार से उन्नत शिक्षा ले रहे हैं।
प्रतीक श्रीवास्तव ने देश-विदेश में अनेक संगीत समारोहों में प्रस्तुति दी है और अपनी स्पष्ट तानों तथा लयकारी से संगीत जगत में विशेष पहचान बनाई है।
पंडित उल्हास कशालकर की गायकी ने रचा संगीत का जादू
सांस्कृतिक संध्या का सबसे बहुप्रतीक्षित क्षण तब आया जब मंच पर उपस्थित हुए हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ, पद्मश्री पंडित उल्हास कशालकर। रिमझिम बारिश और मौसम की चुनौती के बावजूद उनकी गायकी ने माहौल को सधा कर रखा।
उन्होंने अपने गायन की शुरुआत राग संपूर्ण मालकौंस से की और दो पारंपरिक बंदिशें प्रस्तुत कीं —
- बड़ा ख़याल: “बराज रही…”
- छोटा ख़याल: “कित ढूंढन जाऊं…”
दोनों ही बंदिशें विलंबित तीन ताल में थीं और उनकी प्रस्तुति में गायकी का गहराई से अनुभव किया गया।
पंडितजी के साथ मंच पर संगत कर रहे थे:
- प्रो. ओजेश प्रताप सिंह – स्वर संगत एवं तानपुरा
- डॉ. विनय मिश्रा – हारमोनियम
- कौस्तुव स्वैन – तबला
- अंशुमान भट्टाचार्य – तानपुरा
ग्वालियर, जयपुर और आगरा घरानों के अद्भुत समन्वय के लिए पहचाने जाने वाले पंडित उल्हास कशालकर को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तानसेन पुरस्कार और पंडित ओंकारनाथ ठाकुर पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। आज भी वे ITC संगीत अनुसंधान अकादमी में गुरु के रूप में कार्यरत हैं और युवा पीढ़ी को शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सिखा रहे हैं।
निष्कर्षतः, विरासत महोत्सव की यह शाम कला, संगीत और संस्कृति का ऐसा संगम रही, जिसने देहरादून के सांस्कृतिक परिदृश्य को एक नई ऊंचाई दी।