यह ‘महाकुंभ’ है, जहां जीवन समाप्त हो सकता है लेकिन रहस्य कभी खत्म नहीं होते। इस मेले के बारे में जितना जानने की कोशिश करते हैं, उतना ही यह आपके लिए बड़ा और रहस्यमय बनता जाता है। यहां ऐसे व्यक्तित्व होते हैं जिनके रहस्यों को समझने में आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लें, लेकिन यह अहसास हमेशा रहेगा कि आप कुछ भी नहीं जानते। कुछ समय से नागा संन्यासियों के बारे में जानकारी जुटाने की कोशिश में आज एक और जानकारी सामने आई। उस क्षण को ‘अध्यात्म की पराकाष्ठा’ कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। यह वह समय होता है जब एक नागा संन्यासी अपनी ‘मां’ से मिलता है।
सनातन का अर्थ है शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’, यानी जिसका न आदि है और न अंत। नागा संन्यासियों का जीवन इसी शाश्वत अस्तित्व के लिए समर्पित होता है—इसलिए वे अपना जीवन और यहां तक कि प्राण भी त्याग देने को तैयार रहते हैं। वे सनातन की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन एक सवाल हमेशा से रहस्यमय रहा है कि जब नागा संन्यासी शाही स्नान में भाग लेते हैं, तो अचानक उनके भाव में इतना बदलाव क्यों आता है?
यह वह क्षण होता है, जिसे अध्यात्म की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। यह वह क्षण है जब एक बच्चा अपनी मां से मिलता है, जो कई वर्षों बाद आता है, और यही कारण है कि उनके भाव इतने गहरे और बदल जाते हैं। शाही स्नान से पहले जो भाव आप नागा संन्यासियों में देखते हैं, वह दरअसल एक खेल होते हैं। भगवान शिव के दिगम्बर भक्त, नागा संन्यासी महाकुंभ में अपने आप में सबका ध्यान आकर्षित करते हैं। यही वजह हो सकती है कि महाकुंभ में सबसे ज्यादा आस्था का सैलाब उन अखाड़ों की ओर बढ़ता है, जहां नागा संन्यासी अधिक संख्या में होते हैं। इन अखाड़ों की छावनी, सेक्टर 20 में गंगा के तट पर वह परंपरा जीवित रहती है, जिसका इंतजार हर 12 साल में अखाड़ों के अवधूत करते हैं। नागा संन्यासियों की संख्या में जूना अखाड़ा सबसे आगे है, जिसमें अब 5.3 लाख से ज्यादा नागा संन्यासी हैं।